The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
029 -  The Thankless Monkey / कृतघ्न वानर

वाराणसी के निकट कभी एक शीलवान गृहस्थ रहता था, जिसके घर के सामने का मार्ग वाराणसी को जाता था। उस मार्ग के किनारे एक गहरा कुआँ था जिसके निकट लोगों ने पुण्य-लाभ हेतु जानवरों को पानी पिलाने के लिए एक द्रोणि बाँध रखी थी। अनेक आते-जाते राहगीर जब कुएँ से पानी खींचते तो जानवरों के लिए भी द्रोणि में पानी भर जाते। 

एक दिन वह गृहस्थ भी उस राह से गुजरा। उसे प्यास लगी। वह उस कुएँ के पास गया और पानी खींचकर अपनी प्यास बुझाई। तभी उसकी दृष्टि प्यास से छटपटाते एक बंदर पर पड़ी जो कभी कुएँ के पास जाता तो कभी द्रोणि के पास। गृहस्थ को उस बंदर पर दया आई। उसने कुएँ से जल खींचकर खाली द्रोणि को भर दिया। बंदर ने तब खुशी-खुशी द्रोणि में अपना मुँह घुसाया और अपनी प्यास बुझा ली। फिर बंदर उस गृहस्थ को मुँह चिढ़ा-चिढ़ा कर डराने लगा। गृहस्थ जो उस समय निकट के पेड़ की छाँव में आराम कर रहा था बुदबुदाया, "अरे! जब तू प्यास से तड़प रहा था, तो मैंने तेरी प्यास बुझायी। अब तू मेरे साथ ऐसी धृष्टता कर रहा है। क्या तू और कोई अच्छा कर्त्तव्य नहीं दिखा सकता!"

बंदर ने तब कहा, "हाँ मैं और भी अच्छा काम कर सकता हूँ।" फिर वह कूदता हुआ उस पेड़ के ऊपर पहुँच गया जिसके नीचे राहगीर विश्राम कर रहा था। पेड़ के ऊपर से उसने राहगीर के सिर पर विष्ठा की और कूदता हुआ वहाँ से भाग खड़ा हुआ। खिन्न राहगीर ने तब फिर से पानी खींचकर अपने चेहरे व कपड़ों को साफ किया और अपनी राह पर आगे बढ़ गया।

Dubhiya-Makkata-Jataka, Bharhut

O nce, there lived a gentleman in the outskirt of Varanasi. Close to his house was a highway, where there was a deep well. The travelers often used to drag water by a bucket tied with a rope. Further, they filled a trough for the animals to earn merit. Close to the highway there was a dense forest where lived several monkeys.

One day, it so happened that no traveler passed through the highway. So, no body poured any water into the trough for the animals and it was empty. So, when a thirsty monkey came to the well to look for the water and found the trough empty, he was restless.

By chance the civilised man walked through that road and drew some water for himself and quenched his thirst. Satisfied, when he looked up he noticed the monkey tormented with thirst and jumping up and down to drink water. So, he drew more water from the well and poured it in the trough for the monkey before taking some rest under the tree.

The monkey in no time came to the trough and drank the water to his satisfaction. But after quenching his thirst he started making faces to frighten the man. The man murmured, o monkey! I helped you by giving water to quench your thirst and you reciprocate nastiness. Cant you do better than that. The monkey overheard it and jumped on the tree over his head and said, Yes I can do better than that; and he dropped excreta on his head and darted and disappeared into the forest by shrieking, This is our manner of reciprocity.

The man again drew water from the well but to wash himself.   

Bodhisatta was the civilised traveler those days.

 

Dubhiya Makkata Jataka   Jataka Pali No.174


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