The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
092 -   Bimbisara / बिम्बिसार   

मगध के राजा बिम्बिसार की राजधानी राजगीर थी। बिम्बिसार गौतम बुद्ध के सबसे बड़े प्रश्रयदाता थे। वे पन्द्रह वर्ष की आयु में राजा बने और अपने पुत्र अजातसत्तु (संस्कृत- अजातशत्रु) के लिए राज-पाट त्यागने से पूर्व बावन वर्ष इन्होंने राज्य किया। राजा पसेनदी की बहन और कोसल की राजकुमारी, इनकी पत्नी और अजातसत्तु की माँ थी। खेमा, सीलव और जयसेना नामक इनकी अन्य पत्नियाँ थीं। विख्यात वारांगना अम्बापालि से इनका विमल कोन्दन्न नामक पुत्र भी था।

सुत्तनिपात अट्ठकथा के पब्बज सुत्त के अनुसार, इन्होंने संयासी गौतम का प्रथम दर्शन पाण्डव पब्बत के नीचे अपने राजभवन के गवाक्ष से किया और उनके पीछे जाकर, उन्हें अपने राजभवन में आमंत्रित किया। गौतम ने इनका निमंत्रण अस्वीकार किया तो इन्होंने गौतम को उनकी उद्देश्य-पूर्ति हेतु शुभकामनाएँ दी और बुद्धत्व-प्राप्ति के उपरान्त उन्हें फिर से राजगीर आने का निमंत्रण दिया। तेभतिक जटिल के परिवर्तन के बाद, बुद्ध ने राजगीर में पदापंण करके, अपना वचन पूरा किया।

बुद्ध और उनके अनुयायी राजकीय अतिथियों की भाँति राजगीर आए। बुद्ध और उनके अनुयायियों के लिए वेलुवन उद्यान दान में देने के अपने प्रण की पूर्ति दर्शाने के लिए, बिम्बिसार ने बुद्ध के हाथ स्वर्ण-कलश के पानी से धुलवाए। अपि च, आगामी र्तृतीस वर्षों तक बिम्बिसार बौद्ध धर्म के विकास में सहायक बने।

बिम्बिसार का अन्त बड़ा दारुण हुआ। ज्योतिषियों की इस भविष्यवाणी के बाद भी कि उनका पुत्र अजातसत्तु उनके लिए अशुभ सिद्ध होगा, उन्होंने उसे बड़े लाड-प्यार से पाला। बुद्ध को राजा द्वारा दिए गए प्रश्रय से देवदत्त बहुत द्वेष करता था और उसी के दुष्प्रभाव में आकर अजातसत्तु ने अपने पिता की हत्या का षड्यन्त्र रचा, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और धूमिल हो गई। षड्यन्त्र का पता चलने और पुत्र की राज्य-लिप्सा की तीव्रता को देखकर, बिम्बिसार ने स्वयं ही राज्य-त्याग कर दिया और अजातसत्तु राजा बन गया। परन्तु देवदत्त द्वारा पुन: उकसाए जाने पर नए राजा ने बिम्बिसार को बन्दी बना लिया।

चूँकि बिम्बिसार को केवल भूखा रखकर ही मारा जा सकता था, उन्हें एक गरम कारागार में भूखा रखा गया। खेमा (अजातसत्तु की माँ) के अतिरिक्त किसी को उनसे मिलने की अनुमति नहीं थी। पहले, खेमा अपने परिधान में एक सुवर्ण-पात्र में भोजन, छिपाकर ले गईं। उसका पता चलने पर वे अपने पाद-त्राण में भोजन छिपाकर ले गईं। उसका भी पता चल गया तो उन्होंने अपने शिरो-वस्र (मोलि) में भोजन छिपाकर ले जाना चाहा। उसका भी पता चला गया तो वे सुगंधित जल में स्नान करके, अपनी देह को मधु से लेपकर गईं, जिससे वृद्ध राजा उसे चाट लें और बच जाएँ। पर अन्तत:, यह भी पता चल गया और उनका भी प्रवेश निषेध कर दिया गया।

फिर भी चल-ध्यान योग से बिम्बिसार जीवित रहे। जब पुत्र को पता चला कि पिता यूँ सरलता से प्राण-त्याग नहीं करेंगें तो उसने कारागार में कुछ नाइयों को भेजा। बिम्बिसार ने सोचा कि अंतत: पुत्र को अपनी भूल का अनुभव हुआ और ब वह पश्चाताप कर रहा है। अत: उन्होंने नाइयों से अपनी दाढ़ी और बाल काटने को कहा ताकि वे भिक्षुवत् जीवन-यापन कर पाऐं। पर नहीं! उन नाइयों को इसलिए भेजा गया था ताकि वे बिम्बिसार के पैरों को काटकर उनके घावों में नमक और सिरका डाल दें और तत्पश्चात् उन घावों को कोयलों से जला दें।

इस प्रकार बिम्बिसार का चल-ध्यान रोक दिया गया और वे दु:खद मृत्यु को प्राप्त हुए।

B imbisara was the king of Magadha with the capital at Rajgir. He was the greatest patron of Gotama Buddha. He became the king at the age of fifteen and reigned for fifty-two years until he abdicated the throne in favour of his son Ajatasattu (Sanskritised: Ajatashatru). His wife was a princess of Kosala, a sister of the king Pasenadi, who gave birth to Ajatasattu. He had other wives and co-wives, viz., Khema, Silava and Jayasena. He also had a son by the famous courtesan Ambapali, who was given the name Vimala Kondanna.  

According to the Pabbaja Sutta of the Sutta Nipata Atthakatha it is stated that he fist saw the ascetic Gotama through his palace window under the Pandava Pabbata and followed him and invited him to visit his court. But when Gotama turned down the invitation he wished him luck in his quest and re-extended the invitation to visit Rajgir no sooner than he achieved Enlightenment. It was in fulfilment of that promise that the Buddha had visited Rajgir after converting the Tebhatika Jatila.

When the Buddha and his monks visited Rajgir as royal guests and finished the royal meals, Bimbisara then poured some water from a golden jar on the Buddhas hands to express the solemnity of his pledge to donate Veluvana Park to him and his monks. Furthermore, Bimbisara continued to patronise the growth of Buddhism for another thirty-seven years.  

Bimbisara sitting in front of the Buddha

Bimbisaras end was extremely tragic. Despite the warnings given by the soothsayers that his son Ajatasattus birth was inauspicious for him, yet he reared him with great care and affection. When Ajatasattu came of age he plotted to kill his own father under the influence of Devadatta, who loathed the kings patronage to the Buddha, which had further undermined his recognition. When the plot was discovered; and the father read the intense urge of his son to become the monarch he abdicated the throne in his favour. But when instigated again by Devadatta the new monarch got him arrested.

As Bimbisara was not supposed to die except by starvation, so he was imprisoned in a heated prison house, where he was made to starve. No visitor was allowed to enter there except for Khema, his mother. First, she carried food in a golden bowl concealed in her dress. When that was discovered she carried food concealed in her foot-gear. When that, too, was discovered she carried food concealed in her head-dress ( moli ). When all these were discovered then the queen mother visited the old man after bathing in scented water and smearing honey in her body for the old king to lick and survive. When this, too, was detected her entry was finally banned.

Nonetheless, Bimbisara survived by meditating-while-walking. When the son learnt that his father was not to die easily he sent some barbers inside the prison. Bimbisara thought that his son had relented and had, at last, realised his guilt; so, he had sent the barbers to shave his beard and cut his hair to help him lead the life of a monk. But no! Those barbers were sent to cut open his feet and to fill the wounds with salt and vinegar and then to burn the wounds with coal.

Thus prevented from meditating-while-walking he met his tragic end.

 

See Dhammapada Atthakatha i.233.

 


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