The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
014 -  Lion and Jackal / सिंह और सियार

वर्षों पहले हिमालय की किसी कन्दरा में एक बलिष्ठ शेर रहा करता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार और भक्षण कर अपनी गुफा को लौट रहा था। तभी रास्ते में उसे एक मरियल-सा सियार मिला जिसने उसे लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया। जब शेर ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने कहा, "सरकार मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ। कुपया मुझे आप अपनी शरण में ले लें। मैं आपकी सेवा करुँगा और आपके द्वारा छोड़े गये शिकार से अपना गुजर-बसर कर लूंगा।" शेर ने उसकी बात मान ली और उसे मित्रवत् अपनी शरण में रखा।

कुछ ही दिनों में शेर द्वारा छोड़े गये शिकार को खा-खा कर वह सियार बहुत मोटा हो गया। प्रतिदिन सिंह के पराक्रम को देख-देख उसने भी स्वयं को सिंह का प्रतिरुप मान लिया। एक दिन उसने सिंह से कहा, "अरे सिंह ! मैं भी अब तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करुँगा और उसका भक्षण करुँगा और उसके बचे-खुचे माँस को तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा।" चूँकि सिंह उस सियार को मित्रवत् देखता था, इसलिए उसने उसकी बातों का बुरा न मान उसे ऐसा करने से रोका। भ्रम-जाल में फँसा वह दम्भी सियार सिंह के परामर्श को अस्वीकार करता हुआ पहाड़ की चोटी पर जा खड़ा हुआ। वहाँ से उसने चारों और नज़रें दौड़ाई तो पहाड़ के नीचे हाथियों के एक छोटे से समूह को देखा। फिर सिंह-नाद की तरह तीन बार सियार की आवाजें लगा कर एक बड़े हाथी के ऊपर कूद पड़ा। किन्तु हाथी के सिर के ऊपर न गिर वह उसके पैरों पर जा गिरा। और हाथी अपनी मस्तानी चाल से अपना अगला पैर उसके सिर के ऊपर रख आगे बढ़ गया। क्षण भर में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गये।

पहाड़ के ऊपर से सियार की सारी हरकतें देखता हुआ सिंह ने तब यह गाथा कही -


" होते हैं जो मूर्ख और घमण्डी
होती है उनकी ऐसी ही गति।"

The lion in the forest

O nce there lived a mighty lion in a cave of the Himalayas. One day, after killing and eating a buffalo, when he was on his way back to his cave, he found a jackal prostrating before him. The jackal, in fact, wanted to enjoy the left overs of the lion.

He asked him, why do you lie like this, Jackal.

The jackal said, Sir! I would like to be your servant. The lion accepted his proposal and treated him affectionately.

Since that day the lion offered him the left-overs of the animals, who he killed. Being fed on those the emaciated jackal soon bulged; and so did his pride. Further, he fostered the false idea of having equal power like that of the lion. So, one day, he said to the lion, O lion! so far I am fed on your left-overs; but today, I shall offer you my left over as I shall kill and eat an elephant.

The lion advised him to refrain from any such act, as he did not belong to the species of lion-like animal to kill a strong elephant.

The haughty and foolish jackal did not listen to the lion. Feigning like a lion he moved out of the cave and uttered the cry of a jackal thrice, as if it was the cry of a mighty lion. He then looked for an elephant; and saw one at the base of the mountain. He jumped at the large animal from the top of the mountain. But instead of falling on elephants back he fell on his feet. The elephant without paying much notice to the existence of the jackal lifted his fore-leg and placed it on his head and mashed his skull. Thus the foolish jackal was killed instantly.

The lion is walking away after eating his full and leaving the carcass for the jackal

The lion witnessed the entire show from the top of the precipice and said,

A reckless and haughty being

Is thus bound to meet his doom

[Jackal is identified with Devadatta; and the lion with the Bodhisatta].

See Virochana Jataka Jataka Pali No. 143.

 


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