श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
कृपा-पत्र और
लेख मिल
गये थे। उत्तर
देने में विलम्ब
हो गया। नाना
कार्यों में
व्यस्त था। और
आपको पत्र के
लिये जम कर
लिखने की ज़रुरत
थी। सो देर
होती गई।
इसके पहले
आपने जो लेख
भेजा था-'हम
क्या करें', उसका
परिशिष्ट भी
लिखा रखा
है। अभी तक
उसे इसलिए नहीं
भेजा था कि
उसके एकाध अंश
कमजोर जान
पड़ते थे। इस
बार उसे भी
भेज रहा
हूँ।
आपने
साहित्य और
जीवन नामक
व्याख्यान में
जो विचार
प्रकट किये है,
उससे मैं चौदह
आने सहमत
हूँ। बाकी
दो आने से
भी सहमत
हूँ। परन्तु
आपके वक्तव्य
से मुझे यह
नहीं समझ
पड़ा कि मैं जिस
अर्थ में सहमत
हूँगा, वही
आपका अभिप्राय
है या नहीं।
सो दो आने
वाले अवशिष्ट
अंश के विषय
में ही अपना
मत प्रकट कर्रूँगा।
(१)
मैं मानता
हूँ कि मोरियों
की सफाई
'साहित्यिक'
कहे जाने वाले
कार्यों की अपेक्षा
अधिक महत्त्वपूर्ण
है।
(२)
यह भी मानता
हूँ कि जिसे
अपने 'आस-पास
की दुनिया'
से परिचय
नहीं उसे साहित्य
सेवा का अधिकार
नहीं। यह ज़रुर
है कि आस-पास
की दुनिया
का अर्थ होना
चाहिए- 'साहित्यिक
के द्वारा लिखे
जाने वाले
विषय से
संबद्ध दुनिया'।
उदाहरणार्थ
यदि कोई गुप्त
काल का इतिहास
लिख रहा
है तो उसे
यह जानने
की तो ज़रुरत
नहीं है कि
आलू की बुआई
और सिंचाई
कब होनी
चाहिये (जाने
तो बुरा
नहीं है), पर
उसे यह ज़रुर
जानना चाहिये
कि उसके आस-पास
जो मंदिर-तालाब
आदि हैं, उन पर
उस युग का कोई
चिह्म है या
नहीं। उसके गाँ
में बसने वाली
जातियों का
उक्त युग से क्या
संबंध है,
उस गाँव में
बोली जाने
वाली बोली
में कोई उस
युग का प्रभाव
पाया जा सकता
है या नहीं,
इत्यादि। हरएक
साहित्यिक
के लिये हरएक
बात की जानकारी
आवश्यक नहीं
है।
(३)
जब मैं 'दो
आने' साहित्य
को अपने प्रथम
मन्तव्य से निकालता
हूँ तो मेरा
मतलब 'साहित्य
कही जाने वाली
चीज़' का दो
आना है। वस्तुतः
यही दो आना
वास्तविक
साहित्य है,
जो जियेगा
और जिसका
बनना कुनाइन
बाँटने से
कम उपयोगी
नहीं है। ज्यादा
है।
(४)
पूज्य द्विवेदी
जी वाली बात
आपने शायद
पत्रकार या
सामयिक साहित्य
की चर्चा करने
वाले लोगों
को ध्यान में
रख कर उद्धृत
की है। मैं आपके
ही समान,
कहना चहाता
हूँ कि जिसे
अपने जिले, प्रान्त
और देश की
छोटी -बड़ी
सभी महत्त्वपूर्ण
संस्थाओं - पुरानी
और नई, सरकारी
और गैर-सरकारी-कार्रवाइयों
से परिचय
नहीं है, उसे
पत्रकार का कार्य
छोड़ कर कुछ
और कहना
चाहिये। वह
यदि पत्रकार
का कार्य करेगा
तो निश्चित
रुप से देश
को क्षति पहुँचायेगा।
उसके द्वारा
भोली-भाली
जनता अपने ज्ञान
की तृषा बुझाती।
उसे किसी ऐसे
विषय पर
कलम चलाने
का लोभ नहीं
करना चाहिए,
जिसके विषय
में वह अच्छी
तरह नहीं
जानता।
(५)
आपने रसेल
का जो यह
वाक्य उद्धृत किया
है, वह हमारे
कर्त्तव्य को
योग्यतापूर्वक
प्रकट करता
है - कर्मशील
पुरुषों की
अपेक्षा हमें
इस समय ऐसे
विद्वानों की,
अशास्रियों
की, वैज्ञानिकों
की, विचारकों
की, शिक्षा-विशेषज्ञों
तथा साहित्य
सेवियों
की अधिक आवश्यकता
है, जो जातीय
ज्ञान के क्षेत्र
को, जो इस
समय
गंभीर रेगिस्तान
के समान है,
विचारों
की धारा से
सींच कर ज़रखेज़
बना दें। क्योंकि
जब हम राष्ट्र
की आत्मा में
एक उच्च जगत् का
निर्माण करना
प्रारंभ कर
देते हैं, तब
हमारे देश
का बाह्मय रुप
भी सुंदर
तथा सम्मान
योग्य बन
जाता है।
(६)
इस आदर्श का
अनुमित अर्थ यह
हुआ कि यदि
किसी देश
का बाह्मय रुप
सुंदर तथा
सम्मान योग्य
नहीं बन सका
है तो समझना
चाहिये कि
उस राष्ट्र की
आत्मा में एक उच्च
जगत् का निर्माण
किया जाना
शुरु नहीं हुआ
है। यह सच
है। और हमारे
साहित्य की
दिन-रात उन्नति
देखने के बाद
भी यदि हमें
महसूस हो
कि उसका बाह्य
रुप गंदा और
अश्रध्देय है
तो जानना
चाहिये कि
हम साहित्य
के नाम पर
जो कुछ दे रहे
हैं, वह कोई
और चीज़ है।
साहित्य नहीं।
(७)
यदि ऊपर की
बातें आप भी
मानते हैं
तो इसका अर्थ
यह हुआ कि
साहित्य सेवा
के लिए आवश्यक
शर्त हरएक
छोटी-बड़ी
बातों की जानकारी
नहीं है, ब्लकि
एक ऐसी अदमनीय
आंतरिक आकांक्षा
है, जो अपने
देश को और
प्राणिमात्र को
भीतर सो
और बाहर
से सुन्दर तथा
सम्मान योग्य
देखना चाहती
है। अगर यह
आकांक्षा है
तो साहित्य
सेवी लिखने
के साथ-साथ
उन सारी आवश्यक
सामग्रियों
का ज्ञान ज़रुर
प्राप्त करेगा
जो उक्त अभिलाषा
की पूर्ति के
साधन हैं। अगर
यह आकांक्षानहीं
तो शास्रीय
विषयों का
ज्ञान एक जंजाल-सा
होगा और
दुनियादार
की होशियारी
ढकोसला
मात्र होगी।
कविवर रवींद्रनाथ
ठाकुर की वह
प्रसिद्ध कविता
आपको मालूम
ही है, जिसमें
उन्होंने कहा
है कि 'पथ आमरे
पथ देखाबे'
- रास्ता ही
हमें रास्ता
दिखायेगा।
जो साहित्यिक
निष्ठापूर्वक
ऐसी इच्छा ले
के रास्ते पर
निकल पड़ेगा,
वह रास्ता
खोज लेगा।
पूज्य द्विवेदी
जी ने ऐसे ही
रास्ता खोज
लिया था, गुरुदेव
ने भी इसी
तरह रास्ता
खोजा था।
(८)
संक्षेप में यों
कहिये कि
यदि किसी
साहित्यिक
में सम्पूर्ण
समाज की आन्तरिक
और बाह्य
सुंदरता प्राप्त
करने की उत्कट
अभिलाषा
है तो न तो
मोरी साफ़
करने में कोई
संकोच होगा
और न उन गंदो
विचारों
को साफ़ करने
में, जिनके कारण
मोरियाँ
जी रही हैं।
वह दोनों
पर एक साथ झाड़ू
चला सकता
है। शायद
दूसरे पर
झाड़ू चलाने
से काम ज्यादा
हो। आपने ऐसा
ही किया है।
आपका सारा
व्याख्यान विचारों
पर झाड़ू चलाना
ही तो है।
आपने
मेरी सम्मति
जाननी चाही,
इसके लिए कृतज्ञ
हूँ।
विनीत
हजारी प्रसाद
(अभी
स्टाफ़ का एक फूटबाल-मैच
होने जा रहा
है। Nineteenth
century vs. Twentieth century. मैं दूसरे
दल का नेता
हूँ। ज़रा छुट्टी
लेकर चलता
हूँ।)
(मैच में कोई
जीता भी नहीं,
हारा भी
नहीं। आपकी
शताब्दी की
नाक रह गई!)
चंदोला जी
से मालूम
हुआ कि आपने
मेरा स्केच
लिखने के लिये
उनसे सामग्री
माँगी है।
मैं आपसे प्रार्थना
करता हूँ
कि अभी मेरे
संबंध में
कोई स्केच न
लिखें। कुछ और
तपस्या करने
दें, कुछ दिन अगर संभव
हो तो मुझे
लोम चक्षु
के अंतराल
में रहने दें।
लोगों की
न लगने
से बचाना
ही गुरुजनों
का कर्त्तव्य है
आप भी ऐसा
ही करें।
इस बार हिन्दी
भवन के सामने
ही वृक्षारोपण
उत्सव होगा।
गुरुदेव स्वयं
अपने हाथों
वृक्षारोपण
करेंगे।
हमारी लाईब्रेरी
में जो कुछ
पुस्तकें हैं,
उन्हें हम धीरे-धीरे
हिन्दी भवन
में हटा रहे
हैं। एक neucleus
बन जाय तो
आगे देखा जायगा।
हमारे पास
एक दरी आ गई
है। पिछले
वर्ष हिन्दी
समाज के लिये
पिकनिक की
व्यवस्था की
गई थी, पर वह
नहीं हुई।
उसी के १८/-रुपये
बचे थे। इतना
ही और लगा
कर एक दरी खरीद
ली है। बाकी
रुपये भी
किसी पिकनिक
के जरिये निकल
आयेंगे। अब हमें
आल्मारियों
की ज़रुरत है।
एंड??? साहब
की अपील के उत्तर में काशी
नागरी प्रचारिणी
सभा ने अपनी
५०/- रुपये की प्रकाशित
पुस्तकें दी हैं।
आल्मारियाँ
हो जाने पर
हम और पुस्तकों
के लिये अपील
करते रहेंगे।
और सब कुशल
है आशा है
आप सानन्द हैं।
अपरंच
आपने लिखा
था कि मैं और
क्षिति बाबू
जब टीकमगढ़
जायेंगे तो
चाय की भैंस
का नमूना देख
सकेंगे। मैंने
यह पत्र क्षिति
बाबू को
दिखाया था।
वे पूछते हैं
कि क्या सचमुच
आप हमारे
लिये अक्तूबर
में कोई कार्यक्रम
बनवाना चाहते
हैं। उन्हें १५ या
२० को बंबई
विद्यापीठ मे
दीक्षान्त भाषण
करने जाना
है। मुझे भी
साथ ले जाना
चाहते हैं।
मैं भी तैयार
तो हूँ, पर
विद्यापीठ वाले
शायद दो
आदमियों
का व्यय नहीं
बर्दाश्त कर
सकेंगे। आप लिखें
तो मैं क्षिति
बाबू को
बता सकूँगा
कि चाय की भैंस
वाला प्रसंग
विशुद्ध मजाक
था या कुछ और
भी।
पं. दुर्गा
प्रसाद जी विलायत
से ५ सितम्बर
को लौट रहे
हैं।
शेष कुशल
है।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी