IV/
A-2125
DR.HAZARI PRASAD DWIVEDI,
D. LITT.
Prof. and Head of the Deptt. of Hindi,
Dean of University Instruction
Hon. Director, Gandhi Bhawan
Punjab University
Chandigarh-3
2.10.63
आदरणीय
पंडित जी,
प्रणाम!
आपका
लेख ""साहित्यिक
और राजनीति
"" पढ़ गया। आप
दोनों क्षेत्रों
के जानकार
हैं। आप अधिकारपूर्वक
इन बातों को
लिख सकते
हैं। आपने इस
विषय में
मेरे विचार
जानने चाहे
हैं, यह आपकी
सहज उदारता
है। राजनीति
इन दिनों स्वर्ग्रासी
होती जा रही
है। उसने घर
के निभृत कोने
में भी अधिकार
जमाया है।
उससे बच सकना
आसान नहीं
है। आप चाहें
या न चाहें
वह आपको
अपने शक्तिशाली
पंजो में कस
लेगी। जो आदमी
उसकी महिमा
स्वीकार नहीं
करता उसे वह
चैन से नहीं
रहने देती।
यह अजीब बात
है कि साहित्यकार
राजनीति से
बूरी तरह
प्रभावित होता
जा रहा है
पर राजनीतिज्ञ
साहित्य से
बहुत कम
प्रभावित होता
है। इस देश
की तो यही
स्थिति है, और
देशों का परमात्मा
जानें।
यह
द्वेंद्व बहुत
पुराना है।
"राजा बनाम
विद्वान " पुराना
विषय है।
पहले के पंडित
"स्वदेशे पूज्यते
राजा विद्वान्
सर्वत्र "कहकर
मन की खीझ मिटा
लिया करते
थे, या फिर,
"कालो ह्मययं
निरवधिर्विपुला
च पृथ्वी " कहकर
सन्तोष कर
लिया करते
थे। राजतंत्र
के स्थान पर
लोकतंत्र की
जब स्थापना
हुई तो आशा
की गई थी कि
स्थिति सुधरेगी
पर सुधार
बहुत अधिक
नहीं हुआ। राजनीति
अधिक व्यापक
बन गई, बाकी
चीज़ों का महत्व
घटता गया। ऐसा
तो कोई समय
नहीं था जब
कवि, चित्रकार,
मूर्तिकार और
शास्रज्ञ राजाश्रय
की तलाश में
न घूमते हों।
पर मशीन की
सभ्यता के
विजयी होने
के बाद स्थिति
अधिक दयनीय
हो गई है।
शासन-यंत्र
भी एक अदृश्य किन्तु
भीमकाय मशीन
बनता जा रहा
है। उसका शिकंजा
दिन-प्रतिदिन
कठोरतर होता
जा रहा है।
साहित्यिक
ही क्यों, मनुष्यता
ही त्राहि-त्राहि
कर रही है।
अभी तो उससे
निकलने का
कोई रास्ता
नहीं दिखाई
देता। निराशावादी
मैं नहीं हूँ,
यह बात निराश
होकर भी
नहीं कह रहा
हूँ। केवल
यथार्थ की ओर
आपका ध्यान आकृष्ट
कर रहा हूँ।
यह स्थिति अभी
चलती रहेगी।
शासन-यंत्र
और भी मजबूत
मशीन बनने
जा रहा है।
बड़े-बड़े कानूनदाँ
यह कहने
में गर्व अनुभव
करते हैं कि
कानून की व्यवस्था
अन्धी होती है।
अभी यह तो
नहीं कहा जा
रहा है कि
वह निष्प्राण
भी होती
है, पर अन्धी लाक्षणिक
शब्द है और
उसका अर्थ "हृदयहीन
"तो अवश्य है।
उधर साहित्यकार
अब भी अपने को
"सहृदय "मानता
जा रहा है।
इन दो स्थितियों
का मिलन-बिंदु
कहाँ है, समझ
में नहीं आता।
परन्तु
फिर भी मुझे
निराशा नहीं
होती, इसका
कारण बता
रहा हूँ। राजनीति
के दो रुप हैं।
एक तो वह जिसका
दयनीय रुप
पद प्राप्ति के
उखाड़-पछाड़ में
प्रकट होता
है और रुप
शास्रों के जानकारों
और साहित्य-मनीषियों
में भी मिल
जाता है। कहीं
आप उस अशोभन
दृश्य को जानते
जो सम्मेलनों
के पदों की छीना-झपटी
में और छोटी-छोटी
कुर्सियों को
हथियाने की
प्रतिद्वेंदिता
में प्रकट हुआ
करता है। दूसरे
पर कीचड़ उछालने
और अचानक धकिया
कर आगे बढ़ने
की होड़ में
साहित्यिक
पेशे के लोग
किसी से पीछे
नहीं हैं। सो,
राजनीति का
यह रुप व्यापक
है। वैरागियों
में भी आ गया
है, साहित्यिक
तो फिर भी
गृहस्थ हैं
और स्वार्थत्याग
का स्वाँग नहीं
रचते फिरते।
परन्तु राजनीति
ऊँचे धरातल
पर जीवन-दर्शन
बनती जा रही
है। यही आशा
की किरण है।
घटिया-से-घटिया
राजनेता अपने
को विशिष्ट
जीवन-दर्शन
का अनुयायी
मानता है,
लोकहित
की कसम खाता
है, गांधीजी
के नगम की माला
जपता है। भारवान्
पत्थर के नीचे
नीचे उदार जीवन-दर्शन
की स्रोतस्विनी
बह रही है।
नया अंकुर जब
धरती के ऊपर
सिर उठाता है
तो उसके छिलके
सिर पर सवार
हो जाते हैं-"गंदे,
सड़े, प्राणहीन
"छिलके। उसमें
प्राणशक्ति जब
प्रबल होती
है तो वह
उन छिल्कों को
फेंक देता है
और शिशु
वनस्पति उन्मुक्त
वायु और
प्राणवाद प्रकाश
में उल्लसित
होकर आगे
बढ़ता है। हमारी
आजादी के अंकुर
के सिर पर
जातिवाद, संप्रदायवाद,
पदलिप्सा के
प्राणहीन छिलके
छा गए हैं। कोई
चिन्ता नहीं, अगर
प्राणशक्ति है
तो एक दिन ये
छिलके झड़ जाएँगे।
शहिदों के
खून से सींचा
हुआ बिरवा
लहराएगा,
अवश्य लहराएगा।
समय आएगा
जब वह वर्ण
में, गंध में,
रस में रुप
में बहुविचित्र
आनन्द का उद्घोष
करेगा। अभी
यथार्थ भविष्य
के सुन्दर यथार्थ
को जन्म देने
के लिये ही
इतना अच्छा दिखाई
दे रहा है।
इसीलिये
मैं आशावादी
हूँ।
आपके
लेख में कुछ
सुझा सकूँ,
यह धोखा
मुझे नहीं। खैर,
केवल कुछ
विचार आपके
सामने रखना
उचित समझा।
आशा
है, स्वस्थ और
प्रसन्न हैं।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी
पुनश्चः
लेख रख लिया
है। लौटाने
की जरुरत नहीं
समझा। टंकित
प्रति है, आपके
पास होगी
ही। डाक के कुछ
पैसे भी बच
जाएँगे, यह
अधिकन्तु होगा।
हजारी
प्रसाद द्विवेदी