नागरीप्रचारिणी
सभा, काशी
पत्र संख्या:
ही 211/61
20.7.1954
श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
आपके
तीन पत्र मिले।
अच्छा हुआ कि आप
"आलोचना"
के संपादकीय
लेख के बारे
में मेरी राय
जानने की बात
भूल गए।
आपको
"शिखण्डी" बनने
के सुअवसर
पर बधाई!
"सेकेंड" शब्द
के ध्वनि साम्य
पर मैंने संस्कृत
का "शिखण्ड"
शब्द बनाया
है। सेकेंड
क्लास के टिकट
पाने वाले
को इसीलिए
"शिखण्डी" कहना
ठीक है। घबड़ाइए
नहीं, महाभारत
के "शिखण्डी"
(जो व्यर्थ ही
बदनाम है)
से इसका कोई
संबंध नहीं
है। शिखण्ड मोर
की शिखा को
कहते हैं। शिखण्डी
मोर को। एम.
पी. लोग शिखण्डी
अर्थात् मोर
हैं-सांप खाते
हैं, रंग दिखाते
हैं और । आपसे
बहुत ढीठ
हो गया हूँ
इसलिए कह देता
हूँ। कहना
नहीं चाहिए
पर मोर की
तरह एम. पीं
लोगों को
भी सिर की
अपेक्षा पूँछ पर
ही अधिक गर्व
होता है।
किसी दूसरे
एम. पी. से न कहिएगा
नहीं तो दिल्ली
में कठिनाई
हो सकती
है।
अब
काम की बात।
आप हमारे
विद्यार्थियों
को एक बार
अवश्य अपनी बात
सुनाएँ। स्केच
राइटिंग या
कोई भी विषय।
अपनी सुविधा
के अनुसार आ
जाएँ। शुभस्य
शीध्रम्। अवश्य
आइए। काशी में
कम से कम पाँच
दिन रहिए। अवश्य
आइए। एक भाषण
प्रवासी भारतीयों
के संबंध
में भी दें।
आशा
है प्रसन्न हैं।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी