हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 63


IV/ A-2063

20.01.44

पूज्य पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       आपका पत्र यथासमय नहीं मिला। इसलिए इसका उत्तर भी देर से जा रहा है। सबसे पहले आपके वामन अवतार धारण करने पर बधाई दूँ और इस शुभ अवसर का प्रणाम निवेदन कर्रूँ। अगर इसी वेग से अवतार धारण करते गये तो श्रीकृष्णावतार में काफी देर है। अपने पत्र में आपने मुझसे ऐसा कठिन प्रश्न पूछा है कि मैं कोई जवाब ही नहीं खोज पा रहा हूँ। यदि मुझे अखबारनवीसी को कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिया जाय तो मैं क्या कर्रूँगा, बताऊँ? संन्यास ग्रहण कर्रूँगा। गृहस्थ रह कर इस व्यवसाय में घुसना बहुत कठिन है। इस कार्य में तो वह घुसे जो किसी से कुछ चाहता न हो पर चाहता सबको हो। नारद बाबा ने इसीलिए शादी-ब्याह की झंझट मोल नहीं ली थी। एक बार मोह हुआ भी तो भगवान् ने खुद उस मोह को तोड़ दिया। गृहस्थी का गट्ठर पीठ पर लाद कर सारी दुनिया के सामने खरी बात कहते फिरना सम्भव नहीं है। इच्छा-द्वेष से परे रह कर ही आदमी सच्चा पत्रकार बन सकता है। आपने मुझे जिस प्रकार सम्मान देकर स्मरण किया है, वह मुझे अत्यन्त लज्जित करता है। ऐसा न लिखा करें। मैं तो आपका सिखाया हुआ ही साहित्य क्षेत्र में आया हूँ। आपके प्रोत्साहन से ही लिखता रहा हूँ और आपका अंकुश भी मानकर चलता रहा हूँ। मुझे ऐसा ही बराबर समझते रहें। बच्चे सानंद हैं। शास्री जी नमस्कार कहते हैं।

       हाँ, आपने एक बार मुझे एक कलम दिलवाने की बात कही थी। अगर कोई जजमान इस युद्ध के बाजार में अच्छा रोज़गार कर सका हो तो उससे कुछ दान-दच्छिना की व्यवस्था करा कर एक कलम दान करवाइए। मेरा मतलब झरना कलम या फाउन्टेन पेन से है। है कोई जजमान?

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

       काशी में भाई राजकुमार जी मिले थे। बड़े ही सहृदय और प्रेमी हैं। ऐसे व्यक्ति को आपने मित्र बना दिया है। तदर्थ कृतज्ञ हूँ।  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली