श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
आपका
कृपापत्र रीवां
से लौटने
के बाद मिला।
मैं तो आशा
करके गया
था कि रीवां
में आपके दर्शन
होंगे। पर
वहाँ आप मिले
नहीं। बुद्धि
प्रकाश जी भी
नहीं थे। रीवां
आधा ही मिला।
मेरे साथ
पिताजी भी
गए थे, विनोद
जी भी और
मेरे एक विद्यार्थी
नामवर सिंह
भी। हम लोग
"मानवजी"
के अतिथि थे। "मानव"
जी सचमुच
मानव हैं।
उनका सौजन्य
और शील
अगाध है। हम
लोगों के
लिये उन्होंने
बहुत कष्ट
उठाया। मुझे
बड़ी प्रसन्नता
हुई कि रीवां
आकर ऐसे सज्जन
का सत्संग प्राप्त
हुआ। प्रधानमंत्री
शुक्ल जी भी
बड़े सहृदय
पुरुष हैं। रीवां
में अन्य अनेक सज्जन
पुरुषों का
सत्संग प्राप्त
हुआ। आखिरी
दिन को हम
लोगों की
दौड़ तो साहसिक
अभियान ही
कही जा सकती
है। मानव
जी सब समय
हमारे साथ
थे। रीवां से
हम लोग ग्यारह
बजे दिन को
रवाना हुए।
रीवां से
पन्ना, पन्ना से
खजुराहो,
खजुराहो
से छतरपुर,
छतरपुर से
फिर सतना
और सतना
से बनारस।
११बजे घर पहुँच
गया। २४ धंटा
केवल चरैवेति
चरैवेति। कहीं
विश्राम नहीं।
चचाई प्रापत
भी देखा। छक
के स्नान किया।
केवल यही
सोचता रहा
कि आप भी होते
तो यह आनंद
चौगुना हो
गया होता।
खजुराहो
तो विंध्य प्रदेश
का नहीं समूचे
भारतवर्ष
का गौरव
है। पत्थरों
को काटकर
शिल्पियों
ने ऐसा प्राण
ढाल दिया
है कि बस
देखते ही बनता
है। नारी मूर्ति
का ऐसा समृद्ध
उट्टंकन शायद
ही संसार
में कहीं मिले।
एक भी मूर्ति
सीधी नहीं
है। सबमें
वक्रिमा, सबमें
भंगिमा, सबमें
गति। कुछ घासलेटी
मूर्तियाँ भी
हैं पर उतना
तो चाय में
भी विष है!
खजुराहो
में ही छतरपुर
के राजा साहब
मिल गए। बता
रहे थे कि यहाँ
किंवदन्ती है
कि विश्वकर्मा
ने इन मन्दिरों
का निर्माण
किया था। उन शिल्पियों
को विश्वकर्मा
ही कहना चाहिए।
इस बार विंध्यप्रदेश
का अच्छा दर्शन
हुआ। पहाड़ों
और झरनों
का यह प्रदेश
सौंदर्य में
उत्पन्न प्रतिद्वेंद्वी
नहीं जानता।
विंध्यप्रदेश
से लौटकर
सबसे पहला
काम यह किया
कि बीमार
पड़ गया। यह
पत्र भी ज्वर
की अवस्था मे
ही लिख रहा
हूँ। यद्यपि अब
अच्छा हो आया
हूँ परन्तु कमजोरी
भी है और
थोड़ी हरारत
भी। देश सेवा
से पिंड नहीं
छूट रहा है।
ज्वर की अवस्था
में ही कल
नागरी प्र. की
पंचायत में
बैठा रहा।
उम्मीद है कि
अब झगड़ा सुलझ
जाएगा। आज भी
एक सभा में
जाना है। गुरुदेव
के साहित्य
के प्रचार के
लिये यहाँ
हम लोगों
ने रवीन्द्र भारती
नाम की एक संस्था
खोली है।
मैं सभापति
हूँ। आज उसका
औपचारिक
उद्घाटन है।
लाट साहब
आने वाले
थे, नहीं आए। अब
मुझे ही उनका
काम करना
होगा! आपके
मन में इससे
कुछ गौरव
का भाव संचारित
नहीं होगा
यह मुझे मालूम
है। पर है
गौरव की
बात। आप इसका
गौरव अनुभव
करते तो अब
तक लाट साहब
बन गए होते।
"जानत तुमहिं
तुमहिं होइ
जाई!" खैर, मैंने
इसीलिये
लिख दिया
कि आप महसूस
कर सकें कि
बुखार में
भी क्यों देश
सेवा की जाती
है! एक बात
मैं आपसे पूछ
लेना चाहता
हूँ। अराजकवादियों
के राज (?) में
देश "सेवा
" नामक पुण्य
कार्य रहेगा
या नहीं?
आपके
पत्र में भी देश
सेवा की आज्ञा
है। स्पष्ट ही
आपने अराजकवाद
में विश्वास
खोना शुरु
कर दिया है।
आचार्य
जी से मैंने
आपकी बात
कही। बोले
कि यह अच्छा चौबे
जी ने सबको
लिख दिया
कि मैं उनको
सीरियस
आदमी ही नहीं
समझता। मैं
उनका मूल्य
जानता हूँ
पर उनको देख
के हँसी की
अपने आप सूझ
जाती है! खैर।
मौलाना
साहब के
साथ आपकी जो
बातचीत हुई
है उसके बारे
में क्या कहूँ।
मौलाना
साहब के
प्रति श्रद्धा की
मात्रा मे कोई
कमी थोड़े
ही हुई है।
परन्तु इतना
सच है कि लगभग
४ वर्ष बीत
गए हिंदी को
राष्ट्रभाषा
बनाने का कार्य
कुछ भी नहीं
हुआ। क्रांन्ति
की भावना
के जो पुरस्कर्ता
थे वे आज इतना
फूंक-फूंककर
कदम रखते
हैं कि देखने
वाले को
आश्चर्य होता
है। मौलाना
साहब तो
हम लोगों
के पिता तुल्य
हैं। वे पंडित
हैं, साहित्यिक
हैं, मनस्वी
हैं। वे निस्संदेह
देश को नई
प्राणशक्ति से
उज्जीवित कर
सकने की क्षमता
रखते हैं। हम
लोगों को
कष्ट तब होता
है जब हम
अपने मनस्वी
नेता की तेजोद्दिप्त
वाणी नहीं
सुनते। सच
मानिए उनके एक
इशारे पर आज
भी देश के
युवक असाध्य
साधन कर सकते
हैं। क्यों नहीं
वे ललकार
कहते कि नौजवानो,
आज भी देश
की छाती पर
विदेशी भाषा
चढ़ी हुई है,
उठो, अपनी भाषा
को ऐसी शक्तिशालिनी
बना दो कि
वह इस भाषा
को हटाकर
अपना उचित स्थान
अधिकार कर
सके। मौलाना
साहब ही
यह कार्य
कर सकते थे।
वे ही दूसरे
मिनिस्टरों
के आदर्श बन
सकते थे। जब
वहाँ से निराशा
होती है
तो लोग झुंझला
उठते हैं। बस
बात इतनी सी
ही है।
सरकारी नौकरी
से कुछ हो
सकेगा, ऐसी
आशा मुझे नहीं
है। वहाँ
का वातावरण
जब मौलाना
साहब को
ही पंगु बना
देता है तो
हम लोग किस
खेत की मूली
हैं। आप कहते
हैं कि मैं वहाँ
उनकी मदद के
लिये जाऊँ,
मैं कहता हूँ
कि उनसे प्रार्थना
कीजिए कि वे
उस वातावरण
से निकल कर
साहित्यिक
जगत् के युवकों
के बीच में
आएँ और उन्हें
आशा और विश्वास
का संदेश दें।
उनके एक एक इंगित
पर दस कोष
और सौ व्याकरण
लिखे जा सकते
हैं। मैं सत्य
कहता हूँ।
पैसे के बल
पर यह काम
नहीं होगा।
यदि कभी अवसर
मिले तो मौलाना
साहब से
यह नम्रतापूर्वक
निवेदन कर
दें कि हमें
नेतृत्व चाहिए।
अविश्वासियों
से कोई काम
नहीं होता
और मौलाना
साहब जिन
लोगों से
घिरे हैं उनमें
से अधिकांश
सोच ही नहीं
सकते कि अंग्रेजी
के बिना कैसे
काम चलेगा।
अंग्रेजी इस देश
की छाती पर
अधिक दिन तक
चढ़ी नहीं रह
सकती। उसे हटना
और हट कर
रहेगी। बात
देर-सवेर
की है। दिल्ली
का विदेशी
भाषा अब अधिक
दिन नहीं चल
सकती। वह
आकाश बेल
की भाँति है-सुनहरी,
समृद्ध, चिकनी
पर समूचे
पेड़ को खा जाने
वाली! उसकी
जड़ ज़मीन में
नहीं है, पर
ज़मीन में जड़
फैला सकने
वालों का
प्राणरस वह
खींच लेती है।
अगर आप चाहते
हैं कि इस देश
की भाषाएँ
पनपें तो इसे
तो समाप्त
कर ही देना
होगा। मेरा
मतलब इसके
आधिपत्य की समाप्ति
से है।
विनोद
जी का मामला
ज़रा उलझन में
पड़ गया है।
क्या जनपद को
दिल्ली में
जाया जा सकता
है वहाँ शायद
यह अधिक अच्छी
तरह निकल
सकता।
शेष कुशल
है। आशा है,
सांनद हैं।
प्रिय
गुपली को
हमारा स्नेह
और आशीर्वाद
कहें।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी
पुनश्च:
अगर १३ को आप
दिल्ली में
रहें तो मैं
एक दिन के लिये
आ जाऊँ। १३ मई
को। पत्र दें।
हजारी
प्रसाद द्विवेदी