हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 71


IV/ A-20  

शान्तिनिकेतन

5.9.45

श्रध्देय पंडितजी,
सादर प्रणाम

६ पैसे के तार के लिए अनेक धन्यवाद। आपकी तन्दुरुस्ती की ख़बर से बड़ी चिन्ता हुई। मैलेरिया बुरा रोग है। गतवर्ष मुझे बहुत सताया इसने। मैयाक्रिन की गोलियों ले मुझे बहुत लाभ हुआ था। आजकल ये गोलियाँ सर्वत्र मिलने लगी हैं। अगर वहाँ न मिलती हों तो मुझे नुस्खा लिखिए, मैं यहाँ से भिजवा दूँगा। मैयाक्रिन की गोलियाँ पीली-पीली होती हैं। ये कुनाइन से अच्छी समझी जाती हैं। यद्यपि यह स्थान मैलेरिया से मुक्त नहीं है, तो भी खुला हुआ है। आप कुछ दिन यहाँ आकर रहें तो परिवर्तन से कुछ लाभ हो सकता है। आपको मानसिक आनन्द भी मिलेगा। "सेवेन पर सेंट " तो इधर भी बहुत निकल रहे हैं, परन्तु आप निश्चिन्त रहें, ये लोग "शिव की आज्ञा से " ही कहीं कहीं दिख जाया करते हैं। आपके शिव तो "एण्ड??? "ही थे। हम लोगों ने उनका नाम "गुरुवर " दिया था। सो "गुरुवर " बराबर आपकी रक्षा कर रहे हैं। कुछ परवा न करें। मिस साइग्ल, जो इस समय एण्ड??? पी. के लिये आई हैं, अंग्रेज महिला हैं। बंगला अच्छी तरह जानती हैं। काम अंग्रेजी में ही करती हैं। संभवतः मलिक जी भी नवंबर आ जायेंगे। आपकी पुस्तक के अनुवाद के बारे में मैंने पब्लिकिंशग बो से पूछताछ की है। अभी उसका कोई उत्तर नहीं आया है।

मेरी आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी है। बच्चों का स्वास्थ्य ठीक है। यद्यपि सबसे छोटे दो बच्चों को ही थोड़ा-थोड़ा दूध मिल पाता है पर आपके आशीर्वाद से वे स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं। चतुर्वेदी स्वस्थ हैं। पिछले आठ महीनों से मैं हिन्दी-भवन का डिरेक्टर हूँ और इसलिए मेरी तनख्वाह १००/- रुपये की जगह २००/- रुपये हो गई है। पुराना कुछ उधार और ॠण है। उसको चुका रहा हूँ। पिछले आठ महीनों में ॠण
लेने का मौका नहीं आया। वह जगह अभी भी अस्थायी ही है।

प्रिंसिपल ध्रुव वाली घटना मैं आपको सुना देता हूँ। परन्तु इसे कभी छापिये नहीं। ध्रुवजी अब स्वर्गीय हो गये हैं और मेरे साथ जो घटना हो गई, वह शायद आकस्मिक ही थी। स्वभाव से वे दयालु ही थे। बात यों हुई कि मैं संस्कृत कालेज में पढ़ाता था। इतना आप ध्यान में रखें कि हिन्दू विश्वविद्यालय का संस्कृत कालेज न होता तो मैं शायद कुछ भी पढ़ नहीं सकता था। मैंने इधर-उधर से सीखकर थोड़ी अंग्रेजी पढ़ी और एडमिशन की परीक्षा मे बैठा। प्रथम ¸ोणी मे पास हो गया। हिन्दू विश्वविद्यालय के सेंट्रल हिंदू कालेज मे मैं बड़े उत्साह से इन्टरमीडिएट में पढ़ने गया। मेरे घर की आर्थिक अवस्था की बात न कहना ही ठीक है। मुझे याद आता है कि पिताजी ने बड़ी कठिनाई के बाद गांव के एक व्यक्ति से ४०/- रुपये उधार लिये थे। यह मेरी इन्टरमीडिएट की भर्ती कराई की पहली बलि थी। मैं इसके बाद केवल क्लास में बैठता और फीस नहीं देता। हिन्दू विश्वविद्यालय में उन दिनों बहुत-से गरीब विद्यार्थी जबरदस्ती क्लास में बैठा करते थे। साल के अन्त में ध्रुवजी और मालवीय जी की कृपा से उनका उद्धार हो जाता था। मैं भी उसी ¸ोणी में था। कई बार चेतावनी मिली, पर मेरे पास एक कौड़ी नहीं थी। संस्कृत कालेज में १५/- रुपये वृत्ति मिलती थी और ५/- रुपये का एक ट्यूशन करता था। कुछ खाता था कुछ बचाकर घर भेज देता था। घर की अवस्था बड़ी दयनीय थी। आज भी याद करता हूँ तो रोए खड़े हो जाते हैं। साल के अन्त में मेरा नाम कट गया। मैंने सुना था कि ध्रुवजी के पास जाने सब ठीक हो जाता है। मैं डरते-डरते प्रिंसिपल ध्रुव के कमरे में गया। वे कुछ झल्लाए हुए बैठे थे। शायद मेरे जैसे और भी लक्ष्मी से त्यक्त पुत्र उनकी सेवा में हाजिर हो चुके थे। मैंने अपनी कहानी सुनाई। बीच ही में वे झल्ला कर बोल उठे-जाओ मैं नहीं सुनना चाहता। यूनिवर्सिटी गरीबों के लिए नहीं है। जाओ, ईंटा ढोओ। मेरा अनुमान है कि वे किसी कारण गुस्से में थे। नहीं तो उनका स्वभाव दयालु था। परन्तु मुझे तो जैसे वाण लग गया। मैने आधी बात जहाँ-की-तहाँ छोड़ दी और झुक कर प्रणाम करके तुरन्त लौट आया। वे दरवाजे तक मुझे जाते देखते रहे संभवतः मुझे पागल समझा। मैं अपने संस्कृत कालेज के होस्टल में-जिसे विश्वविद्यालय के धनी-मानी विद्यार्थी 'अस्तबल' कहा करते थे-लौट आया और खूब रोया। मेरी पढ़ाई वहीं रुक गई। मेरे एक अध्यापक ने कहा कि चलो मैं तुम्हें फिर से ध्रुवजी के पास ले जाता हूँ। गरज पड़ती है तो सौ बार जाना होता है, पर मेरी रीढ़ टूट चुकी थी। मैं नहीं गया। मालवीय जी की पास जाने की भी हिम्मत नहीं हुई। बाद में मैंने केवल अंग्रेजी लेकर परीक्षा दी। संस्कृत के शास्री के पास विद्यार्थी केवल अंग्रेजी लेकर बी.ए. तक की परीक्षा दे सकते थे। वह भी एक मजेदार कहानी है। परीक्षा में फीस बहुत कम लगी थी, पर उतना दे सकने लायक पैसा भी मेरे पास नहीं था। मेरे पास ओढ़ने के लिए भी कपड़े नहीं थे। मुझे किसी से माँगने की कला नहीं आती थी। सो, मैंने बगल में पोथी दबाई और कथा वांचने चला गया। मेरे एक मित्र थे-श्री सीताराम द्विवेदी। इस अगस्त आन्दोलन में वे गिरफ्तार हुए और जेल में स्वर्ग सिधार गये। उन्होंने को आथ(आरा) में मेरी कथा बैठा दी। वे खुद आर्यसमाजी थे, पर मेरी सहायता के उन्होंने इस बात की परवा नहीं की। कथा सात दिन तक हुई। और आठवें दिन चढ़ावा चढ़ा। ३५/- रुपये, एक रजाई, कुछ साड़ियाँ, कुछ कपड़े, कुछ धोतियाँ और प्रचुर अन्न मुझे मिला। रजाई तो को आथ के हकीम बंधुओं ने दी थी। मेरे जीवन में इससे बड़ी सहायता न कभी मिली और न मिलेगी। आप आसानी से समझ सकते हैं कि साड़ियों और धोतियों का मेरे घर में कैसा स्वागत हुआ होगा। ३५/- रुपये तो मेरे लिए बहुत बड़ी सिद्धि थी। सो मैं इन्टरमीडिएट की नदी पार कर गया। आचार्य पास करने के बाद मैंने एक बार और कथा वांची थी। उसमें १८/- रु. मिले थे। मेरे परम मित्र बाबू बवन सिंह ने इसकी आयोजना की थी। ये दो कथाएँ मैंने वांची हैं। सोचता हूँ, कि थोड़ा बूढ़ा हो जाऊँ तो अपने जीवन के दुखों और उसको दूर करने में सहायता देने वालों का संस्मरण लिखूँ, पर जब सूची पर ध्यान देता हूँ तो वह बहुत विराट मालूम होती है। पर लिखूँगा जरुर।
शायद माधुरी में छपा हुआ आपका एक लेख मैंने पढ़ था। वह शान्तिनिकेतन में चौदह मास या ऐसा ही कुछ था। मुझे उस समय शान्तिनिकेतन एक स्वप्नलोक की भाँति लगा था। मुझे क्या मालूम था कि शान्तिनिकेतन और उसमें चौदह मास बसने वाले आगे चल कर मेरे भविष्य का निर्माण करेंगे। शान्तिनिकेतन में मैं किस प्रकार आया, यह कहानी शायद आपको सुना चुका हूँ जीवन में टर्किंनग प्वाइंट की बात आपने पूछी है। मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना शान्तिनिकेतन मे गुरुदेव का दर्शन पाना है। न जाने किस पूर्व पुण्य फल से मुझे यह सौभाग्य मिला था। दर्शन पा सकना ही परम-पुण्य का फल है। परन्तु मुझे तो स्नेह मिला था। बाद में 'गुरुवर' के दर्शन मिले। आह! भगीरथी की निर्मल जलधारा के समान उस प्रेमिक महापुरुष का साहचर्य कितना अह्लदकार था, इस बात को बही जान सकता है, जिसने उस रात का कभी अनुभव किया हो।

मेरे साहित्य गुरु तो अनेक हैं, पर जिनकी एक चिट्ठी ने मेरे अन्दर अपूर्व जीवनी शक्ति भर दी थी, उनको मैं क्या कहूँ। उन दिनों मैं अज्ञात, अख्यात लेखक था। रविन्द्रनाथ की कविताओं पर एक लेख लिखकर विशाल भारत में छापने को भेजा था। २ जनवरी को मुझे एक पत्र मिला कि आप हमारे जैसे बहुतेरों को पीछे छोड़ गए हैं ! मैं आश्चर्य से उस पत्र को बार-बार पढ़ता रहा। उस दिन मुझे एक नई शक्ति का अनुभव हुआ। आपको नहीं मालूम कि उस एक चिट्ठी ने मुझे कितना बल दिया था उसके एक-एक शब्द में प्रेम और प्रेरणा का ज्वार था। साहित्य क्षेत्र में आप मेरे गुरु हैं। मैं कृतज्ञतापूर्वक आपको प्रणाम करता हूँ। मेरा एक बड़ा सौभाग्य यह रहा कि मुझे गुरु बड़े मस्त और उदार मिलते गए। मैं काशी में ज्योतिष पढ़ता था। स्व. पं. रामयत्न ओझा मेरे गुरु थे। बड़े उदार और बड़े मस्तमौला। मुझे बहुत प्यार करते थे। हालाँकि मैं कई बातों में उनसे मतभेद रखता था। शान्तिनिकेतन आने के बाद मैंने 'व्योमकेश शास्री' इस प्रच्छन्न नाम से एक लेख 'सनातन धर्म' में लिखा। सनातन धर्म मालवीय जी का पत्र था और हिन्दू विश्वविद्यालय से निकलता था। आपने मुझे प्रच्छन्न नाम से लिखने को मना किया था। मैं लज्जापूर्वक स्वीकार करता हूँ कि कई बार मैंने प्रच्छन्न नाम से लेख लिखा है। परन्तु बराबर आपकी बात इस अर्थ में पालन करता रहा हूँ कि जब कभी कोई जवाबदेही का काम होता है तो अपने असली नाम से लिखता हूँ। केवल अनुवाद आदि कभी-कभी प्रच्छन्न भाव से लिखता हूँ आप इतने की छूट तो दे ही देंगे। परन्तु व्योमकेश शास्री सनातन धर्म वाला लेख सचमुच संकोच और भय के कारण ही गुप्त नाम लिखा गया था। उसमें गुरुजी के ज्योतिषिक मत की आलोचना थी। उन्हीं दिनों इन्दौर में ज्योतिष सम्मेलन होने जा रहा था। मालवीय जी महाराज सभापति थे। उद्योक्ताओं को मेरा लेख पसन्द आया और 'व्योमकेश शास्री' उस सम्मेलन की निर्णायक समिति में बंगाल के प्रतिनिधि के रुप में चुन लिए गए। उनके पास चिट्ठी गई, तार गया, रजिस्ट्री से सब सामग्री भेजी गई और मैं सब पाता गया। शान्तिनिकेतन में जिस हिन्दी पते वाली चिट्ठी का कोई ठिकाना नहीं लगता वह मेरे पास आ जाती है। व्योमकेश शास्री की चिट्ठी भी मेरे पास आई और मैंने ले ली। मैंने सम्मेलन वालों को भ्रम में नहीं रखा। उन्हें साफ-साफ अपना नाम बता दिया। फिर भी उन्होंने मुझे निर्णायक समिति में इतने में ही जांच दिया। लेकिन मैं वहाँ जाने की हिम्मत नहीं कर सका, क्योंकि गुरुजी उस निर्णायक समिति के सामने अपने पत्र की स्थापना करनेवाले थे। यदि मैं जाता तो मुझे उनके मत का सर्वांश में तो नहीं, कर कई बातों में समर्थन करना कठिन जान पड़ता। निर्णायक के आसन पर बैठकर मैं किसी भी व्यक्ति के प्रति संकोच और पक्षपात्को पाप मानता हूँ। सो, मैं नहीं गया। गुरुजी भी वहाँ स्वयं उपस्थित नहीं हो सके। यह सारी कहानी गुरुजी को बाद में मालूम हुई। वे बहुत प्रसन्न हुए और डाँटते हुए कहा कि, मैं तो उस दिन अपनी विद्या सफल मान लेता, जिस दिन लड़का मेरे मत की परीक्षा के लिए निर्णायक की गद्दी पर बैठता। 'सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।' सब जगह जीत की इच्छा रखनी चाहिए, पर पुत्र से और शिष्य से हार की इच्छा रखना ही उचित है। गुरुजी बड़े भारी विद्वान् थे। उनकी विद्वता सारे भारतवर्ष में स्वीकार की जाती थी, परन्तु विद्वान् से भी अधिक वे उदार मनुष्य थे। पंडितो में इस प्रकार बहुत कम लोग मिलते हैं। ऐसा मस्तमौला पंडित आपने नहीं देखा होगा। दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु हो गई है। नहीं तो और नहीं तो उनके दर्शन के लिए ही आपको एक बार काशी ले जाता।

रवीन्द्रनाथ को देखने का जिस दिन मुझे अवसर मिला, वह दिन मेरे अनेक जन्म के पुण्यों का फल था। मैंने बिल्कुल नई दृष्टि और नया विश्वास पाया। दोष मुझमें अनेक हैं। सब मुझसे छिपे हों, ऐसी बात नहीं है। कितनी बातें जानीं, फिर भी उन्हें सुधार सकने की क्षमता नहीं है। इसलिए मैं रविन्द्रनाथ को जितना महान् कहना चाहिए, उतना ग्रहण नहीं कर सका। परन्तु उनके दर्शन से मेरे अन्तर में निश्चित रुप से आलोड़न हुआ था और कुछ-न-कुछ मैल ज़रुर गिर गई थी। फिर भी पंडितजी, आपसे सत्य कहता हूँ मेरा जीवन कुछ सार्थक नहीं मालूम होता। आपने राहुल जी और अग्रवाल जी के साथ मेरा नाम लेकर मुझे लज्जित किया है। आप सहज स्नेहभाव से जो कुछ कह गये हैं, वह उचित नहीं है। आप आगे कभी इस तरह न लिखें। यदि मैं कुछ अच्छा कर सका हूँ, तो विश्वास मानिए, वह मेरे कृपालु गुरुजनों और मित्रों की कृपा का फल है। मैं जितना ही विचारता हूँ, उतना ही लगता है कि मैं भार के वेग से चलनेवाले मजदूर की भाँति भागता रहा हूँ। बोझ मे यदि कोई मूल्यवान् वस्तु है तो वह मेरी नहीं है। मैंने अभी भी तत्त्व का आभास नहीं पाया है। मेरे जीवन के ३८ वर्ष बीत गए पर मैं ऐसा कुछ नहीं पा सका जिससे किसी की परवा किए बिना अपने रास्ते चल पाऊँ। गुरुदेव (कविवर रविन्द्रनाथ) ने किसी दु:ख और वेदना से भरे क्षण में एक गान गाया था। कभी-कभी मैं भी उसे गुनगुनाता हूँ और आराम करता हूँ ऐसा मालूम होता है कि मेरा अन्तरतर इसी प्रार्थना को पुकार-पुकार कर गा रहा है। आपका विनोद के लिये वह गान लिख देता हूँ। पहले अनुवाद और बाद में गान है। (आगे वाले पृष्ठ पर) मैंने ये सारी बातें आपके पूछने के कारण लिखी हैं। इन्हें आप अपने तक ही रखें।

मेरी आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी है। पिछले दिसम्बर तक १०० रुपये मासिक पाता था। जनवरी से २०० रुपये पा रहा हूँ। पिछले ॠण में कट जाता है और घरभाड़ा में ८ रुपये जाते हैं। सब काट कूट के इन दिनों १४०-१४५ तक हाथ में आ जाते हैं। बुरा नहीं है। किस हिन्दी लेखक को इतना भी मिलता है। नई नौकरी अस्थायी है। २ साल तक की। यदि फिर नई हिन्दी-भवन योजना के लिए रुपये नहीं मिले तो पुरानी नौकरी पर ही लौटना पड़ेगा। अभी साल भर तक तो इसी पर हूँ। लंबे पत्र के लिए क्षमा करें। पुरानी चिट्ठियाँ जरुर आपके पास जायेंगी। आशा है, प्रसन्न हैं।


हजारी प्रसाद

हे मित्र
तुमने जितना भार दिया था, उसने
सहज कर दिया था
मैंने जितना भार जमा लिया है
वह सब बोझ हो गये हैं।

(बंधु)
तुमि यत भर दियेछ ये भार
करिया दिये छो साज
आमि यत भार जमिये तुलेछि
सकलि हयेछे बोझा

(हे मित्र)
मेरे मित्र, तुम मेरे इस बोझ को उतारो
उतारो
भार के वेग से न जाने कहाँ चला जा रहा हूँ
इस यात्रा को तुम रोको।।

(बंधु)
ए बोझ आमार नमाओ बंधु ।
नामाओ।
भारेर वेगे ते चलेछि लो धाय
ए यात्रा तुमि थामाओ,

(मित्र)
मैंने खुद-ब-खुद जिस दुख को बुला लिया
वह वज्र की अग्नि से मुझे जलाया करता है
और (सबको) ऐसा कोयला बना
देता है कि वहाँ को फल फलता ही नहीं

(बंधु)
आयति ये-दुख हेले आमि से-ये
ज्वालाय वज्रानले
अंगार करे रेखे जाय सेथा
को तो फल नाहि फलेया

(हे मित्र)
तुम जो कुछ देते हो वह तो दुख का दान होता है
वह सावन की झड़ी के समान पीड़ा के रस से
प्राण को सार्थक कर देता है।

(बंधु)
तुमि याहा दाओ से-ये दु:खेरदान
श्रवणधाराय वेदनार रसे
सार्थक करे प्राण

(हे मित्र)
मैंने जहाँ जो दुख पाया है, सिर्फ
जमाता ही गया हूँ
जो देखता है, वही आज हिसाब माँगता है
कोई भी क्षमा नहीं करता

(बंधु)
ये खाते मा किछु पेयेछि केवलि
सकाले करेछि जमा
ये देखे से आज मागे ये हिसाब
तेह नाहि करे क्षमा

(हे मित्र)
हे मित्र मेरे इस बोझ को उतारो
उतारो।
भार के वेग से ठेला जाता हुआ चल रहा हूँ,
इस यात्रा में मुझे रोको।।

(बंधु)
ए बोझा आमार तामाओ बंधु
तामाओ।
भारेर वेगे ते ठेलिया चलेछि
ए यात्रा तुमि थामाओ।।

(मेरे मित्र)

(बंधु)

चतुर्वेदी स्वस्थ है। आपको प्रणाम कहता है। सब बच्चे प्रसन्न हैं। हम सबका प्रणाम स्वीकार करें।

आपका
हजारी प्रसाद

पिछला पत्र   ::  अनुक्रम   ::  अगला पत्र


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली