हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 103


IV/ A-2098

19.1.1953

श्रध्देय पंडित जी,
प्रणाम!

मैं २० को प्रातःकाल दर्शन कर्रूँगा। जब से सुना है कि आप अच्छा साग बनानेलगे हैं तब से उत्साह ढीला पड़ता जा रहा है। पृथ्वीराज रासो - दिल्ली के एक कवि का काव्य - पढ़ रहा हूँ। जयचंद ने चंदबरदायी से पूछा "क्यों दूबरो बरद्द! " बरद्द पर श्लेष था। एक अर्थ वही होता है जो किसी समय कलकत्ते के नं. ५५ का होता था दूसरा अर्थ कवि है। कान्यकुब्ज के राजा ने दिल्ली के कवि से यह पूछा था। कारण बताते समय चंदबरदायी ने कहा था कि "प्रथिराज बल न बद्धौ सुखर यो दुब्बरो बलद्दिया। " और पृथ्वीराज ने खल (खलिहान और दुष्ट) के सब तृण खा लिया है "बरध" दुबला न हो तो क्या हो! अर्थात् दिल्ली में खर चर जाने की प्रथा पुरानी है! जब वहाँ के राजा से कवि तक सब साग ही पर भिड़ जायँ तो अनर्थ तो होगा ही। आपका पत्र पढ़कर रासो की घटना याद आ गई।

आशा है, मेरे पहुँचते पहुँचते साग की अपेक्षा चाय अधिक अच्छा बनाने लगेंगे। आप मेरी चिन्ता न करें। आपके लिये भी निमंत्रण जुटाता आऊँगा।

आपका
हजारी प्रसाद

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली