हजारीप्रसाद
द्विवेदी के पत्र |
प्रथम खंड |
संख्या - 118
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IV/
A-2101
काशी
दिनांकः 15.7.55
श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
जिस समय
आपका पत्र यहां
आया उस समय
मैं पुरी में
था। भगवान
जगन्नाथ के दर्शन
तो नहीं हुए
क्योंकि एकादशी
के दिन अत्याधिक
स्नान कर लेने
के कारण उनपें
हर साल बुखार
आ जाता है।
और १५-१६ दिन बंद
रहते हैं भुवनेश्वर
और खण्डगिरी
तथा उदयगिरी
और पुरी के
गुजरते हुए
समुद्र को देख
आया हूँ। प्रकृति
और मनुष्य
दोनों ने अपने-अपने
ढ़ग से सौंदर्य
का निर्माण
किया है। रह-रह
के आपकी याद
आ जाती थी। नई
दिल्ली की नीरस
योजना पर
आधारित मुखरा
नगरी। हाय,
भुवनेश्वर
के निर्माताओं
के वंशजों
में क्या कहीं
भी प्राणशक्ति
वास्तुकला
नहीं बच रही
है। मैं हैरान
होके सोचता
हूँ कि क्या
भुवनेश्वर
की अद्भुत वास्तुकला
का सस्ता अनुकरण
भी नई दिल्ली
में नहीं मिल
सकना क्या सुचित
करता है। विदेशी
शासन ने हमारा
सौंदर्यबोध
समाप्त कर दिया
है। खैर। अभी
तो टेलीफोन
काम नहीं आया।
अभी विज्ञान
को थोड़ा आगे
बढ़ जाने दीजिए।
आशा है
प्रसन्न हैं। अगस्त
में पहुँचने
का बहाना
खोज रहा
हूँ।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी
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© इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला
संस्करण: १९९४
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: इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला
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